राजस्थान की चित्रकला की शैलियां और उद्धव काल =
राजस्थानी चित्रकला का उद्भवकाल पन्द्रहवीं शताब्दी माना जाता है।राजपूतकाल में भित्तिचित्र, पोथीचित्र, काष्ठपाट्टिका चित्र और लघुचित्र बनाने की परम्परा रही हैं।
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अधिकांश रियासतों के चित्र बनाने के तौर-तरीकों के स्थान के
अनुसार मौलिकता और सामाजिक-राजनैतिक परिवेश के कारण अनेक चित्रशैलियों का विकास हुआ यथा-मेवाड़, मारवाड़, बून्दी, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और कोटा चित्रशैली। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक और मौलिक रूप मेवाड़ शैली में दिखाई देता है, इसलिए इसे राजस्थानी चित्रशैलियों की जनक शैली कहा जाता है।
अनुसार मौलिकता और सामाजिक-राजनैतिक परिवेश के कारण अनेक चित्रशैलियों का विकास हुआ यथा-मेवाड़, मारवाड़, बून्दी, बीकानेर, जयपुर, किशनगढ़ और कोटा चित्रशैली। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि राजस्थानी चित्रकला का प्रारम्भिक और मौलिक रूप मेवाड़ शैली में दिखाई देता है, इसलिए इसे राजस्थानी चित्रशैलियों की जनक शैली कहा जाता है।
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1260 में चित्रित श्रावक प्रतिक्रमण सम्पूर्णि नामक चित्रितीं ग्रंथ इसी शैली का प्रथम उदाहरण है।
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1.मेवाड़ शैली -मेवाड़ राज्य राजस्थानी चित्रकला का सबसे प्राचीन केन्द्र माना जा सकता हैं।
महाराणा अमरसिंह के शासनकाल में इस चित्रशैली का अधिक विकास हुआ। लालःपीले रंग का अधिक प्रयोग, गरूड़नासिका, परवल की खड़ी फांक से नेत्र, घुमावदार व लम्बी अंगुलियां, अंलकारों की अधिकता और चेहरों की जकड़न आदि इस शैली की प्रमुख विषेशताएँ हैं। मेवाड़ शैलीके चित्रों का विषय श्रीमद्भागवत्, सूरसागर, गीतगोविन्द, कृष्णलीला, दरबार के दृष्य, शिकार के दृष्य आदि थे। इस चित्रशैली के चित्रकारों में मनोहर, गंगाराम, कृपाराम, साहिबदीन और जगन्नाथ प्रमुख हैं। राजा अमरसिंह के काल से इस षैली पर मुगल प्रभाव दिखाई देता है।
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2.मारवाड़ शैली -मारवाड़ में रावमालदेव के समय इस शैली का स्वतन्त्र रूप से विकास हुआ। इस शैली में पुरूष लम्बे चौड़े गठीले बदन के, स्त्रियाँ गठीले बदन की, बादामी आँखें, वेशभूषा ठेठ राजस्थानी और पीले रंग की प्रधानता होती थी। चित्रों के विषय नाथचरित्र, भागवत, पंचतन्त्र, ढोला-मारू, मूमलदे, निहालदे, लोक गाथाएँ होती थी। चित्रकारों में वीर जी, नारायणदास, भारी अमरदास, छज्जूभाटी, किशनदास और कालूराम आदि प्रमुख हैं।
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3.बीकानेर शैली -महाराजा अनूपसिंह के समय इस शैली का वास्तविक रूप में विकास हुआ। लाल, बेंगनी, सलेटी और बादामी रंगो का प्रयोग, बालू के टीलों का अंकन, लम्बी इकहरी नायिकाएं, मेघमंडल, पहाड़ों और फूल पत्तियों का आलेखन इस शैली की प्रमुख विषेशताएँ रही है। शिकार, रसिक प्रिया, रागमाला, शृंगारिक आख्यान विशेष रहे हैं। इस शैली पर पंजाब कलम, मुगल शैली और मारवाड़ शैली का प्रभाव पाया जाता है।
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4.किशनगढ़ शैली -यह राजपतू कालीन चित्रकला की अत्यन्त आकर्षक शैली है। इस शैली का सर्वाधिक विकास राजा नागरीदास के समय में हुआ। उभरी हुई ठोड़ी, नेत्रों की खंजनाकृति बनावट, धनुषाकार भौंए, गुलाबीअदा, सुरम्य सरोवरों का अंकन इस चित्रशैली के चित्रों की प्रमुख विषेशताएं है ‘बनी ठनी’ इस चित्रशैली की सर्वोत्तम कृति है, जिसे भारतीय चित्रकला का ‘मोनालिसा’ भी कहा जाता है। इसका चित्रण निहालचन्द ने किया था। इस शैली के चित्रों में कला, प्रेम और भक्ति का सर्वांगीण सामंजस्य पाया जाता है।
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5.जयपुर शैली -इस चित्रशैली का काल 1600 ई. से 1700 ई. तक माना जाता है। इस शैली पर राजस्थान में मुगल चित्रकला का सर्वाधिक प्रभाव रहा है। सफेद, लाल, पीले, नीले तथा हरे रंग का अधिक प्रयोग, सोने-चाँदी का उपयोग, पुरूष की बलिष्ठता और महिला की कोमलता इस शैली की प्रमुख विशेषता रही है। शाही सवारी, महफिलों, राग-रगं , शिकार, बारहमासा,गीत गोविन्द, रामायण आदि विषय प्रमुख रहें है।
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6.बून्दी शैली -मेवाड़ से प्रभावित, राव सुरजन से प्रारम्भ बून्दी शैली उम्मेदसिंह के समय तक उन्नति के शिखर पर पहुँची थी। लाल, पीले रंगो की प्रचुरता, छोटा कद, प्रकृतिका सतरंगी चित्रण इस चित्र शैली की विशेषता रही है। रसिकप्रिया, कविप्रिया, बिहारी सतसई, नायक-नायिका भेद, ऋतु वर्णन बून्दी चित्रशैली के प्रमुख विषय थे। इस शैली में पशु-पक्षियों का श्रेष्ठ चित्रण हुआ है, इसलिए इसे ‘पशु पक्षियों की चित्रशैली’ भी कहा जाता है। यहाँ के चित्रकारों में सुरजन, अहमद अली, रामलाल, श्री किशन और साधुराम मुख्य थे।
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7.कोटा शैली -कोटा चित्र शैली में बून्दी तथा मुगल शैली का समन्वय पाया जाता है। स्त्रियों के चित्र पुतलियों के रूप में, आँखे बड़ी, नाक छोटी, ललाट बड़ा, लंहगे उँचे, वेणी अकड़ी हुई इस शैली की प्रमुख विशेषताएँ रही है। चित्रों के विषय शिकार, उत्सव, श्री नाथ कथा चित्रण, पशु-पक्षी चित्रण रहें हैं।
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8.नाथद्वारा शैली -यह शैली अपनी चित्रण विलक्षणता के लिए प्रसिद्ध रही है। यहाँ श्रीनाथजी की छवियों के रूप में‘पिछवाई चित्रण’किया जाता है। इस प्रकार राजस्थान चित्रण की दृष्टि से सम्पन्न रहा है। यहाँ पोथीखाना (जयपुर), मानसिंह पुस्तक प्रकाश (जोधपुर), सरस्वती भण्डार (उदयपुर) और स्थानीय महाराजाओ तथा सामन्तों के संग्रहालयों में चित्रकला का ऐसा समृद्ध भण्डार उपलब्ध है जो न केवल राजस्थान को धनी बनाये हुये है, वरन-भारत की कलानिधि का एक भव्य संग्रह भी है।
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